कश्मीर के लिए …
रह ना सकूँ मैं अम्मी घर में, हो गए दिन इतने इतने,
मुझको सुंदर फूल बुलाते, खिलें स्कूल में हैं कितने।
कैसे फैली आग भयानक, मेरे स्कूल के आँगन में,
दहक उठी चिंगारी जैसे मेरे अपने जीवन में ।
जी चाहे खो जाऊँ अपने प्रिय शिक्षकों की बातों में ,
कभी ना देखूँ अजनबी दुश्मन, लिए बंदूक़ हाथों में ।
मत छीनों ऐ दोस्त दे दो, मुझको मेरे खेल खिलौने ,
दे दो मुझे किताबें मेरी, और दे दो मेरे स्वप्न सलोने ।
चाहूँ मैं अपने यार दोस्त के साथ घूमना फिरना,
सुबह सवेरे हँसते खेलते सूरज के साथ स्कूल जाना ।
मुझे चाहिए मेरे वो दिन, मेरा बचपन मेरे अपने ,
नहीं लगाओ आग ना जलाओ राख बने मेरे सपने ।
तुमने मेरे संगी साथियों को गोलियों की बौछारें दीं ,
नहीं मगर तुम बुझा सके रोशनी अंतर्मन के चिराग़ों की ।
और हम आज के बच्चे भी इस दुनिया की औलादें हैं,
नहीं छीन पाओगे कलम हमारी, यही अपनी फ़ौलादे हैं ।
अगर गिले शिकवें हैं हमसे बात करो दिन के उजाले में ,
ना की चोर शैतान की भाँति आओ गहरी रात के काले में।
क्या हुआ आपके ईमान का, जो लगता है कि बिक गया ,
आपकी ख़ामोशी से अम्मी अब्बू, लगता है सब रुक गया ।
क्या आपकी ये ख़ामोशी शैतानियत को बढ़ावा नहीं ,
क्या आपका चुप बैठना अंधकार को चढ़ावा नहीं ?
ये जान के दुश्मन भूल गए ये अपनो को ही जला रहे,
ये भूल गए मासूमों को उनके ही आँसुओ में डूबा रहे ।
तो निकल पड़ो तुम सड़कों पर हम बच्चों के हित को लेकर ,
तलवार से ज़्यादा कलम बड़ी है, साबित कर दो तुम सब देकर।
इन गोलियों की बौछारें हमको डरा रही धमका रही,
पर इनके डर से कभी हमारी अंतरात्मा मरे नहीं ।
चलो चले हम डाडी यात्रा फिर से अपनी इच्छा से,
अपने नमक के अधिकारों को करें शुरू अपनी कक्षा में।
रह ना सकूँ मैं घर में अम्मी, हो गए दिन कितने कितने, मुझको सुंदर फूल बुलाते स्कूल में खिलें हैं कितने कितने ।