
क्षत विक्षत हुआ महोत्सव
रात के अंधेरे में चलते चलते
रेत के बीच ठोकर लगी
देखा नम आँखो से एक क्षत विक्षत आकार
लगा जैसे हो गणेश मूर्ति
मन ने पूछा क्या यही है हमारी भक्ति ??
जिसे पूजा दिन और रात
घरों में, पंडालो में और खुले आसमाँ में
हज़ारों ने संभाला, प्रेम किया और पूजा
दण्डवत किया साष्टांग,
याद किया भजन में, प्रार्थना में,
सुंदर परिधान, स्वादिष्ट मोदक,
रंग बिरंगे फूल,
ढोल नगाड़े, गाना बजाना, किया विसर्जन,
जहाँ था उनका मूल,
क्या यही था उनका अन्त ???
क्या यही कह गए संत ??
की थी शुरुआत लोकमान्य ने
जगाना था देश को देशभक्ति से
किया प्रबल आजादी के भाव को
लाए सभी को एक साथ भक्ति में
किया प्रबल एकता की शक्ति को,
क्या आज भी है इसका काम ??
नहीं, अब नहीं वो समय,
अब ज़रूरत है एक संसार की,
ये उत्सव जोड़ता है हम सभी को,
पूजा, अर्चना, प्रसाद और प्रेम से,
गणेश तब तक है, जब तक है ये सृष्टि ।
आज समय है राष्ट्र निर्माण का,
धरती माँ को सुंदरता देने का,
क्या गणपति जल में विसर्जन होने के बजाय
मंदिरो में नहीं जा सकते ??
क्या जल हमारा जीवन नहीं ??
और जब वो लोग गणेश मूर्ति को,
जल प्रवाह कर चैन की नींद सोते,
क्यूँ मेरी आँखे सो ना पाती
क्षत विक्षत मूर्तियों की तरह,
और मेरा मन सोचता, क्या यही है हमारी भक्ति ??
क्यों उनकी आँखे नहीं देख सकती
वो क्षत विक्षत आकार,
जो करे इंतजार उनका
जो उन्हें उठाने आएँगे,
या वो देख कर अनदेखा करते, क्या यहीं हैं उनके संस्कार ??
विसर्जन के बाद अगले दिन
सुबह सवेरे रेत में देखो,
सैकड़ों मूर्तियाँ अपने शमशान में
कुछ आड़ी कुछ टेढ़ी कुछ औंधी पड़ी हुई,
अभी तक मेरी आँखो में नाचती रहती है, क्या यही है मेरी भक्ति??
मुझे नहीं लगता भगवान ये चाहें
कि हम उन्हें बहाए जल में,
वह तो चाहे रखे हम उन्हें,
जीवन भर अपने मन में,
चलो बनाएँ एक पंडाल जहाँ हो भक्ति, शक्ति और मानव प्रेम,
चलो बसाएँ अपने ईश को,
अपने मन में, अपने प्राण में ।।।।।
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